अजेय, उद्भट, विकट बलशाली, महापराक्रमी योद्धा – भगवान श्रीकृष्ण
( भगवान श्रीकृष्ण का सारा जीवन युध्द करते ही बिता लेकिन जब भी अस्त्र उठाये तो कारण महज एक ही था और वह था शांति की स्थापना। )
कवियों, साहित्यकारों की कल्पना में कृष्ण कोमल, रसिक, श्रृंगार प्रिय और रमणविहारी हैं। लोक और साहित्य दोनों में उनके युद्ध कौशल के वर्णन को लेकर एक अजीब सी हिचक है। लोक साहित्य में बंशी बजैया और माखन चोरी या रासलीला की छवि प्रचुरता से देखने को मिलती है। महाभारत युग के महान योद्धाओं में भीष्म, अर्जुन, कर्ण भीम दुर्योधन, द्रोणाचार्य इत्यादि का नाम तो लिया जाता है पर कृष्ण को केवल नीतिकार के रूप में सीमित कर दिया गया । अधिकाँश मंदिरों में कृष्ण की स्थापना राधा के साथ मुरलीधर स्वरुप में है। भगवान राम की प्रतिमा या चित्र बिना धनुष के पूरा नही होता नही होता पर धनुषयुक्त कृष्ण की प्रतिमा शायद ही कहीं देखने को मिले जबकि वह समकालीन धनुर्धरों में ही नही वरन सर्वकालिक धनुर्धरों में सर्वश्रेष्ठ थे। उनका चक्रधारी स्वरुप लोकप्रिय है किन्तु चक्र को एक शस्त्र के रूप में निरुपित करने की बजाय साहित्यकार उसके दार्शनिक पक्ष पर अधिक मुखर हैं जिसकी स्तुति मायाजाल को काटने के क्रम में प्राय: की जाती है बजाय कि किसी युद्ध में चक्र चलाने की कुशलता का वर्णन हो । कृष्ण के शौर्य कर्म पर उनका चौर्य कर्म और कुशल नीतिज्ञ पर छलिया रूप भारी पड़ता है। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि कृष्ण के उस स्वरुप से परिचय कराया जाए जो उन्हें एक उद्भट और अजेय योद्धा सिद्ध करती हैं।
कृष्ण ने जब भी अस्त्र उठाये तो कारण महज एक ही था और वह था शांति की स्थापना। उन्होंने ‘शांति के लिए युद्ध’ की घोषणा की। महाभारत का युद्ध तभी हुआ जब शांति स्थापना के सारे मार्ग विफल हो गये। लेकिन महाभारत के युद्ध के अलावा कृष्ण ने बड़े विकट युद्ध लड़े। दरअसल जब कृष्ण के जीवन-चरित को जब सूक्ष्मता से देखा जाता है तो एक बात स्पष्ट हो जाती है कि जन्म से लेकर गोलोक गमन तक उनका जीवन युद्धमय ही रहा। पैदा होते ही कारागार, प्रहरी, बरसात यमुना की बाढ़ से संघर्ष, पूतना वध, बकासुर से लेकर कालिया नाग का मान मर्दन यह बतलाने के लिए काफी है कि माखनचोरी की लीला के आवरण में एक जबर्दस्त योद्धा के विवरण छिपा हुआ है। गोकुल में एक से बढ़कर एक महाबली राक्षसों का संहार करने के बाद कृष्ण ने इंद्र को चुनौती दी और गोवर्धन पर्वत उठाकर अपने बाहुबल का परिचय दिया।
कृष्ण निर्विवाद रूप से सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे । उनके पास सारंग धनुष था। सारंग वही धनुष है जो त्रेता में भगवान राम के पास था। उनके धनुर्धर होने की बात मद्र देश की राजकुमारी लक्ष्मणा के स्वयंवर में सिद्ध होती है जब अर्जुन और कर्ण जैसे महान धनुर्धरों के असफल हो जाने पर उन्होंने मत्स्य भेदन कर के स्वयंवर जीता। उन प्रलयंकारी अस्त्र-शस्त्रों की एक लम्बी सूची का विवरण दिया जा सकता है जो कृष्ण के पास तत्कालीन समय थे। प्रमुख रूप से ‘नंदक’ खड्ग, ‘कौमौदकी’ गदा, के साथ साथ भगवान परशुराम द्वारा प्रदत्त विख्यात सुदर्शन चक्र के साथ वह पाशुपतास्त्र का भी संधान करते थे। पाशुपतास्त्र शिव के बाद श्रीकृष्ण और अर्जुन के पास ही था। इसके अलावा उनके पास प्रस्वपास्त्र भी था, जो केवल शिव, वसुगण और भीष्म के पास ही था। इसके अलावा कृष्ण के पास ‘जैत्र’ तथा ‘गरुढ़ध्वज’ नाम के दो अतुलनीय रथ थे जिसे चार बलशाली अश्व खींचते थे।
शस्त्रों के अलावा कृष्ण मल्ल विद्या में भी पारंगत थे । यह जानकर आश्चर्य हो सकता है मल्लयुद्ध जो कालान्तर में कलारिपयट्टू के नाम से जाना गया वह दरअसल आधुनिक मार्शल आर्ट है जिसे कृष्ण ने यह विद्या अपने साथियों के साथ तब विकसित की जब वह गायें चराने जाते थे। उन्होंने ही इस विद्या के माध्यम से ही उन्होंने चाणूर और मुष्टिक जैसे मल्लों का वध किया था। इसी विद्या के जरिए उन्होंने कालिया नाग को परास्त किया था।
जब हम कृष्ण के पराक्रमी रूप का चिन्तन करते हैं तो कंस वध के उपरान्त जरासंध से हुए युद्धों को ध्यान से समझना होगा। जरासंध मगध का अत्यंत क्रूर एवं साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का शासक था। उसने श्रीकृष्ण को मारने के लिए कामरूप का राजा दंतवक, चेदिराज शिशुपाल, कलिंगपति पौंड्र, भीष्मक पुत्र रुक्मी, काध अंशुमान तथा अंग, बंग, कोशल, दषार्ण, भद्र, त्रिगर्त आदि के राजाओं के अतिरिक्त शाल्वराज, पवनदेश के राजा भगदत्त, सौवीरराज, गांधार के राजा सुबल ( शकुनी के पिता ) , नग्नजित के राजा मीर, दरद देश के राजा गोभर्द आदि की सहायता से मथुरा पर सत्रह बार आक्रमण किया। हर बार कृष्ण उसे भयंकर युद्ध में हरा कर भगाकर उसका मान मर्दन करते हैं।
मुर दैत्य का वध करने के पश्चात ( इसी वजह से उन्हें मुरारि कहा जाने लगा ) भौमासुर का वध, पौन्ड्रक और शिशुपाल का वध कृष्ण ने किया । ये सभी ऐसे महारथी थे जिन्होंने देवताओं को भी आतंकित कर रखा था जिनसे भिड़ने का साहस मानवों में नही था। माना जाता है कि कृष्ण ने असम में बाणासुर और भगवान शिव से युद्ध के समय ‘माहेश्वर ज्वर’ के विरुद्ध ‘वैष्णव ज्वर’ का प्रयोग कर विश्व का प्रथम ‘जीवाणु युद्ध’ लड़ा था। जाम्बवंत से युद्ध हो या नग्नजित के यहाँ सांडों को नाथ देना ये सब कृष्ण के अदम्य साहसी और पराक्रमी होने की अद्भुत गाथाएँ हैं। कृष्ण की वीरगाथा में महाभारत युद्ध का अपना एक विमर्श है। चूँकि इस युद्ध में कृष्ण सीधे तौर पर शामिल नही हैं पर युद्ध का संचालन उन्ही के नेतृत्व में हुआ। पांडवों के रथ संचालक की भूमिका में आने मात्र से कौरव दल का मनोबल गिर गया।
शैशवकालीन कुछ छिटपुट घटनाओं को छोड़ दें तो कृष्ण का सम्पूर्ण जीवन युद्धों में ही बीता है और अंत में उन्हें अपने स्वजनों के साथ भी युद्ध करना पड़ा। ऐसे महा पराक्रमी योद्धा को सिर्फ बांसुरी बजाने वाला या राधा स्वरुप के साथ महिमामंडित करना कृष्ण के व्यक्तित्व को अति अल्प सिद्ध करने का ही प्रयास कहा जाएगा। आवश्यकता है कृष्ण के सारंगधर, नंदकधर और कौमौद्कीधर के रूप में प्रतिस्थापित करने की ताकि आने वाली पीढी उन्हें रूमानी नायक के ही रूप में न देखे अपितु महा उद्भट योद्धा के तौर पर समझ सके।
वंदे कृष्णम जगतगुरुम
साभार
बहुत बड़िया …..
अति उत्तम विचार ….