Saturday, May 31, 2025
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गुरु अर्जुनदेव का जीवन पूरी मानव सभ्यता के लिए एक अमूल्य धरोहरः राष्ट्रसंत कमल मुनि कमलेश

शहादत की ऐसी अनूठी भावना सृजित की कि पूरा संसार आश्चर्यचकित रह गया। वास्तव में गुरु जी का मानव हित संकल्प ही ऐसा था, जिसमें व्याकुलता या पराजय का कोई स्थान नहीं था। गुरु साहिब अपने संकल्प के कारण ही अपने प्रत्येक मिशन में आजीवन सफल रहे। यह संकल्प था परमात्मा पर अटल विश्वास और सच हेतु अकाट्य प्रतिबद्धता।

 

सिख धर्म के पांचवें गुरु श्री अर्जुनदेव जी / बलिदान दिवस – 30 मई

गुरु अर्जुनदेव का जीवन पूरी मानव सभ्यता के लिए एक अमूल्य धरोहरः राष्ट्रसंत कमल मुनि कमलेश

 

पंचम पातशाह श्री गुरु अर्जुन देव जी के किए गए उपकार गणना और वर्णन से परे हैं। ये उपकार अकल्पनीय और असंभव थे। उनकी राह कंटकपूर्ण थी, चुनौतियां चारों ओर से थीं। गुरु साहिब ने अपनी राह के हर कंटक को दूर किया, हर चुनौती को परास्त किया और सिख पंथ को नई दिशा प्रदान की। गुरु जी का जीवन पूरी मानव सभ्यता के लिए एक अमूल्य धरोहर की तरह है।

हिन्दू धर्म और भारत की रक्षा के लिए यों तो अनेक वीरों एवं महान् आत्माओं ने अपने प्राण अर्पण किये हैं; पर उनमें भी सिख गुरुओं के बलिदान जैसा उदाहरण मिलना कठिन है। पाँचवे गुरु श्री अर्जुनदेव जी ने जिस प्रकार आत्मार्पण किया, उससे हिन्दू समाज में अतीव जागृति का संचार हुआ।

गुरु श्री अर्जुनदेव जी विक्रमी सम्वत् 1638 को गुरु गद्दी सौंप गई । सिख धर्म के पांचवें गुरु अर्जुन देव के काल में अमृतसर शहर सिखों के धार्मिक केंद्रबिंदु के रूप में उभर रहा था। बड़ी संख्या में सिख बैसाखी के पवित्र उत्सव पर वहां उपस्थित होते थे। गुरुजी ने एक और अभिनव परंपरा का सृजन किया था। इसमें प्रत्येक सिख अपनी कमाई का दसवां हिस्सा (जिसे ‘दसबंद’ कहा जाता था) गुरुजी के राजकोष में जमा करवाता था. इस राशि का उपयोग धर्म एवं समाज के उत्थान के विभिन्न कार्यो में किया जाता था।

इस बीच, धीरे-धीरे सिखों ने गुरु अर्जुन देव को ‘सच्च पातशाह (बादशाह)’ कह कर संबोधित करना आरंभ कर दिया था। सिख अनुयायियों की संख्या दिन दूना, रात चौगुनी बढ़ने लगी थी। इसलिए उनसे समाज में रूढ़िवादी व कट्टर मुस्लिम समुदाय के लोग ईष्या करने लगे थे। बादशाह जहांगीर भी गुरु अर्जुन देव के सिख धर्म के प्रचार-प्रसार से डर गया था। उसने गुरु के विरोधियों की बातों में आकर उनके विरुद्ध सख्त रुख अपनाने का मन बना लिया था। जहांगीर के आदेश पर गुरु अर्जुन देव को गिरफ्तार कर लाहौर शहर लाया गया तथा वहां के राज्यपाल को गुरु को मृत्युदंड सुनाने का फ़रमान दे दिया गया।

इसके साथ ही अमानवीय यातनाओं का अंतहीन दौर चल पड़ा। लाहौर के वज़ीर ने गुरु अर्जुन देव को एक रूढ़िवादी सोच के व्यवसायी को सुपुर्द कर दिया। कहा जाता है कि उसने ने गुरुजी को तीन दिनों तक ऐसी-ऐसी शारीरिक यातनाएं दीं, जो ना तो शब्दों में बयां की जा सकती हैं, ना ही वैसी कोई मिसाल इतिहास में ढूंढ़े मिलेगी।  यातनाओं के दौरान गुरु अर्जुन देव को लोहे के धधकते हुए गर्म तवे पर बैठाया गया. इतने पर भी जब चंदू का मन नहीं भरा, तो उसने गुरुजी के सिर व नग्न शरीर पर गर्म रेत डलवायी. गुरुजी के सारे शरीर पर छाले व फफोले निकल आये।

श्री गुरु अर्जुन देव जी, श्री गुरु रामदास साहिब के तीन पुत्रों में सबसे छोटे थे। बाल्यावस्था में ही उनकी आध्यात्मिक प्रतिभा प्रकट होने लगी थी, जिसे देख कर नाना श्री गुरु अमरदास साहिब ने भविष्यवाणी कर दी थी कि यह बालक मानवता का महान उद्धारक बनेगा। श्री गुरु अमरदास साहिब ने उन्हें ‘बाणी का बोहिता’ अर्थात ‘बाणी (ज्ञान) का बोहित (जहाज)’ का विशेषण प्रदान किया था, जिसका आश्रय लेकर लोग, अज्ञान के सागर को पार कर सकेंगे।

अल्पायु में ही श्री गुरु अर्जुन देव जी अपने पिता श्री गुरु रामदास साहिब का प्रतिनिधित्व करने लगे थे। गुरु साहिब ने संस्कृत आदि विभिन्न भाषाओं का गूढ़ ज्ञान प्राप्त किया और अनेक धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन किया। वह कुशल घुड़सवार भी थे। वह श्री गुरु रामदास साहिब के ज्योति-जोत समाने के बाद 18 वर्ष की आयु में गुरुगद्दी पर विराजमान हुए।

बाह्य परिस्थितियां कभी उनकी अंतर अवस्था को प्रभावित करने में सफल नहीं हुईं। गुरु जी ने गुरुगद्दी के दावेदार अपने बड़े भ्राता पृथीचंद का आक्रोश ऐसे सहा जैसे कुछ घटित ही न हुआ हो। श्री गुरु ग्रंथ साहिब के संपादन का अति कठिन कार्य सरलता व ऐसी श्रेष्ठता से किया कि एक धर्म-ग्रंथ, जगत का अनुपम आदर्श बन गया। श्री अमृतसर साहिब नगर का प्रसार और श्री हरिमंदिर साहिब का निर्माण कराया, जो संसार का पवित्रतम स्थल बन गया।

शहादत की ऐसी अनूठी भावना सृजित की कि पूरा संसार आश्चर्यचकित रह गया। वास्तव में गुरु जी का मानव हित संकल्प ही ऐसा था, जिसमें व्याकुलता या पराजय का कोई स्थान नहीं था। गुरु साहिब अपने संकल्प के कारण ही अपने प्रत्येक मिशन में आजीवन सफल रहे। यह संकल्प था परमात्मा पर अटल विश्वास और सच हेतु अकाट्य प्रतिबद्धता।

गुरु जी का गुरुत्व काल 25 वर्ष का था, जिसमें उन्होंने आनंद ही आनंद बांटा। उन्होंने सर्वाधिक बाणी उच्चारण की, श्री गुरु रामदास साहिब के बनाए अमृत सरोवर को पक्का कराया, संतोखसर का कार्य पूर्ण कराया, तरनतारन ताल, रामसर बनवाया, लाहौर में बाउली आदि का निर्माण कराया। करतारपुर (जालंधर), तरनतारन साहिब, छेहरटा साहिब जैसे नगर बसाए।

उनकी महिमा सभी वर्गों में स्थापित हुई। इससे मुगल सत्ता चिंतित हो उठी। उसे अपने धर्म इस्लाम के प्रसार में बाधा नजर आने लगी। उस समय तक अकबर के बाद जहांगीर मुगल शासन के तख्त पर बैठ चुका था। वह अकबर की तुलना में अधिक कट्टर मुसलमान था।

उसने गुरु जी को लाहौर में 30 मई, 1606 ई. को भीषण गर्मी के दौरान ‘यासा ए सियासत’ कानून के तहत लोहे की गर्म तवी पर बिठाकर शहीद कर दिया। ‘यासा ए सियासत’ के अनुसार किसी व्यक्ति का रक्त धरती पर गिराए बिना उसे यातनाएं देकर शहीद किया जाता था। गुरु जी के शीश पर गर्म-गर्म रेत डाली गई।

जब गुरु जी का शरीर अग्नि के कारण बुरी तरह से जल गया तो आप जी को ठंडे पानी वाले रावी दरिया में नहाने के लिए भेजा गया, जहां गुरु जी का पावन शरीर रावी में अलोप हो गया। जहां गुरु जी ज्योति ज्योत समाए, उसी स्थान पर लाहौर में रावी नदी के किनारे गुरुद्वारा डेरा साहिब (जो अब पाकिस्तान में है) का निर्माण किया गया है।

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