“धर्म, संस्कृति और समाज का संरक्षण कर राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति का लक्ष्य”
वर्ष 1925 में प्रारंभ हुई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यात्रा इस वर्ष विजयादशमी पर अपनी शताब्दी का मील का पत्थर प्राप्त करेगी। आज संघ सबसे अनूठा, व्यापक और राष्ट्रव्यापी संगठन बन गया है। अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के बाद संघ का जो संकल्प और आह्वान सामने आया, उसमें इस यात्रा के मूल्यांकन, आत्ममंथन और संघ के मूल विचार के प्रति पुनः समर्पण का आह्वान किया गया है। संघ की कार्यप्रणाली कैसी है और इसके आयाम क्या हैं? वे कौन से मोड़ थे, वे कौन सी घटनाएं थीं, जिनसे गुजरकर संघ आज इस रूप में हमारे सामने खड़ा है। संघ के विरोधी क्या सोचते हैं और संघ अपने विरोधियों के बारे में क्या सोचता है? संघ आज क्या है और संघ कल क्या होगा? इन सभी सवालों और आगे की राह जानने के लिए, ऑर्गनाइजर के संपादक प्रफुल्ल केतकर, पांचजन्य संपादक हितेश शंकर, मराठी साप्ताहिक विवेक की संपादक अश्विनी मयेकर और मलयालम दैनिक जन्मभूमि के सह संपादक एम. बालाकृष्णन ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत से विस्तृत बातचीत की। (यह बातचीत 21-23 मार्च, 2025 को आरएसएस की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की पृष्ठभूमि में और ऑपरेशन सिंदूर से पहले की गई थी)। संपादित अंश —
प्र – आप संघ के एक स्वयंसेवक एवं सरसंघचालक के नाते संघ की 100 वर्ष की यात्रा को कैसे देखते हैं?
डॉ. हेडगेवार जी ने संघ का कार्य बहुत सोच समझकर शुरू किया । देश के सामने जो कठिनाईयाँ दिखती हैं, उनका क्या उपाय करना चाहिए यह प्रयोगों के आधार पर निश्चित किया गया और वह उपाय अचूक रहा । संघ की कार्य पद्धति से काम हो सकता है और मार्ग में आने वाली सभी बाधाओं को पार कर संघ आगे बढ़ सकता है, यह अनुभव से सिद्ध होने को 1950 तक का समय लग गया । उसके बाद संघ का देशव्यापी विस्तार और उसके स्वयंसेवकों का समाज में अभिसरण शुरू हुआ । आगे चार दशक तक संघ के स्वयंसेवकों ने समाज जीवन के अन्यान्य क्षेत्रों में उत्तम रीति से कार्य करते हुए अपने कर्तृत्व, अपनत्व तथा शील के आधार पर समाज का विश्वास अर्जित किया तथा 1990 के पश्चात इस विचार एवं गुण संपदा के आधार पर देश को चलाया जा सकता है, यह सिद्ध कर दिखाया। अब इसके आगे हमारे लिए करणीय कार्य यह है कि इसी गुणवत्ता का तथा विचार का अवलंबन कर पूरा समाज सब भेद भूलकर प्रामाणिकता व नि:स्वार्थ बुद्धि से देश के लिए स्वयं कार्य करने लगे, और देश को बड़ा बनाए।
प्र – 100 वर्ष की इस यात्रा में महत्वपूर्ण पड़ाव क्या थे?
संघ के पास कुछ नहीं था। विचार की मान्यता नहीं थी, प्रचार का साधन नहीं था, समाज में उपेक्षा और विरोध ही था। कार्यकर्ता भी नहीं थे। संगणक में इस जानकारी को डालते तो, वह भविष्यवाणी करता कि यह जन्मते ही मर जाने वाला है। लेकिन देश विभाजन के समय हिंदुओं की रक्षा की चुनौती व संघ पर प्रतिबन्ध की कठिन विपत्तियों में से संघ सफल होकर निकला और 1950 तक यह सिद्ध हो गया कि संघ का काम चलेगा, बढ़ेगा। इस पद्धति से हिन्दू समाज को संगठित किया जा सकता है। आगे संघ का पहले से भी अधिक विस्तार हो गया। इस संघ शक्ति का महत्त्व 1975 के आपातकाल में संघ की जो भूमिका रही, उसके कारण समाज के ध्यान में आया। आगे एकात्मता रथ यात्रा, कश्मीर के सम्बन्ध में समाज में जनजागरण तथा श्री राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन व विवेकानंद सार्धशति जैसे अभियानों के माध्यमों से तथा सेवा कार्यों के प्रचंड विस्तार से संघ विचार तथा संघ के प्रति विश्वसनीयता का भाव समाज में अच्छी मात्रा में विस्तारित हुआ।
प्र – 1948 और 1975 में संघ पर जो संकट आए, संगठन ने उससे क्या सीखा?
यह दोनों प्रतिबन्ध लगने के पीछे राजनीति थी। प्रतिबन्ध लगाने वाले भी जानते थे कि संघ से नुकसान कुछ नहीं, अपितु संघ से लाभ ही है। इतने बड़े समाज में स्वाभाविक ही चलने वाली विचारों की प्रतिस्पर्धा में अपना राजनैतिक वर्चस्व बनाए रखने का प्रयास करने वाले सत्तारूढ़ लोगों ने संघ पर प्रतिबन्ध लगाया। पहले प्रतिबन्ध में सभी बातें संघ के विपरीत थीं। संघ को समाप्त हो जाना था। परन्तु सब विपरीतता के बावजूद संघ उस प्रतिबन्ध में से बाहर आया और आगे 15-20 वर्षों में पूर्ववत होकर पूर्व से भी आगे बढ़ गया। संघ के स्वयंसेवक जो केवल शाखाएं चलाते थे, समाज के क्रियाकलापों में बड़ी भूमिका नहीं रखते थे, वे समाज के अन्यान्य क्रियाकलापों में सहभागी होकर वहां अपनी भूमिका सुनिश्चित करने लगे। 1948 के प्रतिबन्ध से संघ को यह लाभ हुआ कि हमने अपने सामर्थ्य को जाना और समाज में और व्यवस्थाओं में परिवर्तन लाने की ओर स्वयंसेवक योजना बनाकर अग्रसर हुए। संघ के विचार में पहले से तय था कि संघ कार्य केवल एक घंटे की शाखा तक मर्यादित नहीं है, बल्कि शेष 23 घंटे के अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक, सार्वजनिक तथा आजीविका के क्रियाकलापों में संघ के संस्कारों की अभिव्यक्ति भी करनी है। आगे चलकर 1975 के प्रतिबन्ध में समाज ने संघ के इस बढ़े हुए दायरे की शक्ति का अनुभव किया। जब अच्छे-अच्छे लोग निराश होकर बैठ गए थे, तब सामान्य स्वयंसेवक भी यह संकट जाएगा और इसमें से हम सब सही सलामत बाहर आएंगे, ऐसा विश्वासपूर्वक सोचता था। 1975 के आपातकाल के समय अपने प्रतिबन्ध को मुद्दा न बनाते हुए संघ ने प्रजातंत्र की रक्षा के लिए काम किया, संघ के ऊपर टीका टिप्पणी करने वालों का भी साथ दिया। उस समय समाज में, विशेष कर समाज के विचारशील लोगों में एक विश्वासपात्र वैचारिक ध्रुव के नाते संघ का स्थान बना। आपातकाल के पश्चात संघ कई गुना अधिक बलशाली होकर बाहर आया।
प्र – भौगोलिक और संख्यात्मक दृष्टि से संघ बढ़ता गया है। इसके बावजूद गुणवत्तापूर्ण कार्य व स्वयंसेवकों का गुणवत्ता प्रशिक्षण करने में संघ सफल रहा है। इसके क्या कारण है?
गुणवत्ता और संख्या में आप केवल गुणवत्ता बढ़ाएंगे और संख्या नहीं बढ़ाएंगे अथवा केवल संख्या बढ़ाएंगे और गुणवत्ता नहीं बढ़ाएंगे तो गुणवत्ता का बढ़ना या संख्या का टिकना यह संभव नहीं। इसी बात को समझकर संघ ने पहले से इस पर ध्यान रखा है कि संघ को सम्पूर्ण समाज को संगठित करना है, लेकिन संगठित करना इसका एक अर्थ है। एक व्यक्ति को कैसे तैयार करना है, इन सब व्यक्तियों का गठबंधन या संगठन कैसा होना चाहिए, ‘हम’ भावना कैसी होनी चाहिए, इसके लिए पहले से कुछ मानक तय किये हैं। उन मानकों को तोड़े बिना संख्या बढ़ानी है और मानकों पर समझौता नहीं करना है, इसका अर्थ लोगों को संगठन के बाहर रखना नहीं। एक उदाहरण है, एक बड़े संगठन के प्रारम्भ के दिनों का। उस संगठन में मूल समाजवादी विचारधारा के एक व्यक्ति कार्यकर्ता बने। उनको लगातार सिगरेट पीने की आदत थी। पहली बार वो अभ्यास वर्ग में आए। सिगरेट तो छोड़िये, वहां सुपारी खाने वाला भी कोई नहीं था। वे दिन भर तड़पते रहे। रात को बिस्तर पर लेटे तो नींद नहीं आ रही थी। इतने में संगठन मंत्री आये और कहा कि नींद नहीं आ रही है तो बाहर चलो। थोड़ा टहल आते हैं। बाहर ले जाकर उन्होंने उस नए व्यक्ति को यह भी कहा कि उधर चौक पर सिगरेट मिलेगी। मन भरकर पी लो और वापस आ जाओ। वर्ग के अन्दर सिगरेट नहीं मिलेगी। वे नए कार्यकर्ता टिक गए, बहुत अच्छे कार्यकर्ता बने और सिगरेट भी छूट गयी। उस संगठन को उन्होंने उस प्रदेश में बहुत ऊँचाई तक पहुंचाया। व्यक्ति जैसा है, वैसा स्वीकार करना है। यह लचीलापन हम रखते हैं। परन्तु हमें जैसा चाहिए, वैसा उसको बनाने वाली आत्मीयता की कला भी हम रखते हैं। यह हिम्मत और ताकत हम रखते हैं। इस कारण संख्या बढ़ाने के साथ ही गुणवत्ता कायम रही। हमें संगठन में गुणवत्ता चाहिए, लेकिन हमें पूरे समाज को ही गुणवत्तापूर्ण बनाना है, इसका भान हम रखते हैं।
प्र – संघ आज भी डॉक्टर हेडगेवार जी एवं श्री गुरुजी के मूल विचारों के अनुरूप चल रहा है। परिस्थिति की आवश्यकता के अनुरूप इस में कैसे रूपांतरण किया है?
डॉक्टर साहब, श्री गुरूजी या बाळासाहब के विचार सनातन परम्परा या संस्कृति से अलग नहीं हैं। प्रगाढ़ चिंतन व कार्यकर्ताओं के प्रत्यक्ष प्रयोगों के अनुभव से संघ की पद्धति पक्की हुई और चल रही है। पहले से ही उसमें पोथी निष्ठा, व्यक्ति निष्ठा व अंधानुकरण की कोई जगह नहीं है। हम तत्वप्रधान हैं। महापुरुषों के गुणों का, उनकी बताई दिशा का अनुसरण करना है, परन्तु हर देश-काल-परिस्थिति में अपना मार्ग स्वयं बनाकर चलना है। इसलिए नित्यानित्य विवेक होना चाहिए। संघ में नित्य क्या है? एक बार बाळासाहब ने कहा था कि ‘हिन्दुस्थान हिन्दू राष्ट्र है’, इस बात को छोड़कर बाकी सब कुछ संघ में बदल सकता है। सम्पूर्ण हिन्दू समाज इस देश के प्रति उत्तरदायी समाज है। इस देश का स्वभाव व संस्कृति हिन्दुओं की संस्कृति है। इसलिए यह हिन्दू राष्ट्र है। इस बात को पक्का रखकर सब करना है। इसलिए स्वयंसेवक की प्रतिज्ञा में “अपना पवित्र हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति व हिन्दू समाज का संरक्षण करते हुए हिन्दू राष्ट्र के सर्वांगीण उन्नति” की बात कही गयी है। हिन्दू की अपनी व्याख्या भी व्यापक है। उसकी चौखट में अपनी दिशा कायम रखते हुए देश-काल-परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन करते हुए चलने का पर्याप्त अवसर है। प्रतिज्ञा में “मैं संघ का घटक हूँ”, यह भी कहा जाता है। घटक यानी संघ को गढ़ने वाला, संघ का लघुरूप और संघ का अभिन्न अंग, इसलिए अलग-अलग मत होने पर भी चर्चा में उनकी अभिव्यक्ति का पूर्ण स्वातंत्र्य है। एक बार सहमति बनकर निर्णय होने पर सब लोग अपना-अपना मत उस निर्णय में विलीन कर एक दिशा में चलते हैं। जो निर्णय होता है उसको मानना है। इसलिए सबको कार्य करने की स्वतंत्रता भी है और सबकी दिशा भी एक है। नित्य को हम कायम रखते हैं और अनित्य को देश-काल-परिस्थिति के अनुसार बदलकर चलते है।
प्र – संघ को जो बाहर से देखते हैं, जिन्होंने अनुभव नहीं किया है, उन्हें संगठन का ढांचा समझ में आता है, लेकिन इतनी लंबी यात्रा में विचार-विमर्श और आत्मचिंतन की प्रक्रिया कैसी रहती है!
उसकी एक पद्धति बनायी है, जिसमें उद्देश्य और आशय निश्चित है। लेकिन उनको देने की पद्धति अलग-अलग हो सकती है। ढांचा तो बदल सकता है, लेकिन ढांचे के अन्दर क्या है वह पक्का है। परिस्थिति के साथ-साथ मनस्थिति का भी महत्त्व है। इसलिए हमारे प्रशिक्षणों में देश की स्थिति, चुनौतियाँ आदि बहुत सारा विचार रहता है। जिसके साथ-साथ ही उनके सन्दर्भ में स्वयंसेवक को कैसे होना चाहिए, संगठन किन गुणों के आधार पर बनाता है, स्वयं में उन गुणों का विकास करने के लिए हम क्या करते हैं, आदि बातों का भी विचार होता है। प्रार्थना में हमारे सामूहिक संकल्