जातिगत जनगणना : दोधारी तलवार!
भारत सरकार ने जातिगत जनगणना कराने का फैसला लिया है। इसे एक ऐतिहासिक और विचारोत्तेजक कदम कहा जा सकता है। इससे देश की सामाजिक संरचना, राजनीति और नीतिगत दिशा पर दूरगामी असर की संभावना है। यह निर्णय ऐसे समय आया है जब कुछ राज्य चुनावों की ओर बढ़ रहे हैं और आरक्षण, सामाजिक न्याय तथा आर्थिक असमानता पर चहुँदिश बहस जारी है।
ग़ौरतलब है कि विपक्षी दलों, विशेषकर क्षेत्रीय पार्टियों द्वारा जाति आधारित आँकड़ों की माँग वर्षों से उठती रही है। यही वजह है कि यह घोषणा कहीं न कहीं राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों के दबाव का परिणाम प्रतीत हो रही है। देखा जाना चाहिए कि क्या यह घोषणा राजनीतिक लाभ लेने की एक कोशिश है या वास्तव में नीतिगत सुधार की दिशा में एक प्रबुद्ध निर्णय है।
जातिगत जनगणना: सामाजिक न्याय या राजनीतिक जोखिम?
जातिगत जनगणना के औचित्य-अनौचित्य पर चर्चा के दौरान प्राय सयाने याद दिलाना नहीं भूलते कि आखिरी बार जातिगत आँकड़े 1931 में इकट्ठा किए गए थे। स्वतंत्र भारत में आज तक कोई समग्र जातिगत जनगणना नहीं हुई, जिससे यह स्पष्ट नहीं है कि आरक्षण और कल्याण योजनाओं का लाभ वास्तविक ज़रूरतमंदों तक पहुँच रहा है या नहीं।
वर्तमान समय में जब सरकारें डेटा-आधारित नीति निर्माण की ओर बढ़ रही हैं, जातिगत आँकड़ों की अनुपलब्धता को एक बड़ी बाधा समझा जाता है। इसलिए यह जनगणना सामाजिक न्याय को व्यवस्थित करने, पिछड़े वर्गों की सही पहचान करने और संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण में सहायक सिद्ध हो सकती है। बेशक, इसके कई सकारात्मक पहलू हैं। फिर भी कुछ चिंताजनक बिंदु अनदेखे नहीं किए जा सकते।
जातिगत आँकड़ों को सार्वजनिक करने से सामाजिक ध्रुवीकरण, जातिवाद के पुनरुत्थान और राजनीतिक ध्रुवीकरण की संभावना को नकारा नहीं जा सकता है। इतिहास गवाह है कि जाति आधारित राजनीति ने कई बार राष्ट्रहित से अधिक वर्गहित को प्राथमिकता दी है। इसके अतिरिक्त, यदि यह गणना पारदर्शिता और निष्पक्षता के साथ नहीं की जाती, तो यह समाज में अविश्वास और संघर्ष को जन्म दे सकती है।
जातिगत जनगणना: सामाजिक न्याय या राजनीतिक उपकरण?
देखना यह भी होगा कि जाति आधारित जनगणना क्या केवल हिंदू आबादी तक सीमित रहेगी अथवा मुस्लिम आबादी के भीतर विद्यमान जातिगत असमानता को भी लक्षित करेगी! कहना न होगा कि यदि इस जनगणना का उद्देश्य नीतिगत न्याय है, तो यह आरक्षण नीति की पुनर्समीक्षा, सामाजिक कल्याण योजनाओं की सटीकता और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की समुचित पहचान की दिशा में एक क्रांतिकारी पहल हो सकती है।
वहीं दूसरी ओर, यदि इसका प्रयोग केवल राजनीतिक ध्रुवीकरण और वोटबैंक के पुनर्गठन के लिए किया गया, तो यह भारत की सामाजिक समरसता के लिए हानिकारक ही सिद्ध होगी। अत इस निर्णय की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि सरकारें इन आँकड़ों का उपयोग सार्थक नीति निर्माण और समानता की स्थापना के लिए करती हैं या नहीं। यह भी अहम होगा कि आँकड़ों को वास्तविकता के धरातल पर उपयोग किया जाए, न कि राजनीतिक हिसाब-किताब के आधार पर।
अंतत, जातिगत जनगणना एक दोधारी तलवार है। इसका स्वागत इस शर्त पर किया जाना चाहिए कि यह सामाजिक न्याय को सुदृढ़ करने का औजार बने, न कि सामाजिक विभाजन का हथियार। भारत की लोकतांत्रिक परिपक्वता का असली मूल्यांकन इस बात से होगा कि हम जातिगत आँकड़ों को कैसे सँभालते हैं – जानकारी के एक स्रोत के रूप में या वोट की गणना के एक साधन के रूप में! यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि भारत इस अवसर का उपयोग अपनी नीति और नियति दोनों को सुधारने के लिए कैसे करेगा! फिलहाल, बकौल शौहर खतौलवी इतना ही कि-
लोकतंत्र के हाल पर, चिंतित हुआ कबीर!
जाति पूछ कर बँट रही, राजनीति की खीर!!
-साभार