जगत कल्याण की भावना ही मनुष्य को महान बनाती है : प्रज्ञामूर्ति पू.श्री अक्षय ज्योति जी म.सा.
मनुष्य जीवन का ध्येय विश्व का कल्याण ही होना चाहिए। यही हमारी विचारधारा भी है। जब तक दूसरे सुखी नहीं होंगे हम सुखी नहीं हो सकते। इसलिए सब सुखी हों, सब स्वस्थ हों, सबका कल्याण हो।
हमारे धर्म ग्रन्थों में कहां भी गया है –
सर्वे भवन्तु सुखिनः
जीवन का ध्येय अनेक शब्दों में कहा जाता है। जैसे स्वतन्त्रता, मुक्ति, ईश्वरप्राप्ति, दुःखनाश, यश, वैभव, सुख आदि ।
अगर व्यापक और गहराई से विचार किया जाय तो किसी भी ध्येय से मानव-जीवन सफल हो सकता है, फिर भी जब तक ध्येय और उपध्येयों को ठीक तौर से न समझ लिया जाय मनुष्य के गुमराह होने की काफी आशंका रहती है ।
इसलिए अंतिम ध्येय और उसे पाने के लिये जिस जिस बात को पहले प्राप्त करना हो वह उपध्येय अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए। ध्येय और उपध्येय में जहां विरोध हो वहां उपध्येय को छोड़कर ध्येय को अपनाना चाहिए। ध्येय के लिये उपध्येय है इसलिये उपध्येय को ध्येय की कसौटी पर कसते रहना चाहिये । उपध्येय के लिये हम पूछ सकते हैं कि वह किसलिये, पर ध्येय के लिये यह पूछने की जरूरत नहीं होती।
एक आदमी नौकरी करता है तो हम पूछ सकते हैं, नौकरी किसलिए? उत्तर मिलेगा – पैसे के लिये । पैसा किस लिये ? रोटी के लिये । रोटी किस लिये ? जीवन के लिये । जीवन किस लिये ? सुख के लिये।
इसके बाद प्रश्न समाप्त है । सुख किसलिये यह नहीं पूछा जाता ।इसलिये सुख अन्तिम ध्येय कहलाया। परन्तु यहां सुख का मतलब क्षणिक सुख और अपना ही सुख नहीं । जब तक दूसरे भी सुखी नहीं रहेंगे हमारा सुख भी बेकार होगा । हमारे वेदों, उपनिषदों तथा ऋषियों, मुनियों ने हमेशा विश्व कल्याण के लिये ईश्वर से कामना की और वसुधैव कुटुम्बकम् का उपदेश दिया I
सर्वे भवन्तु सुखिनःसर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
सब सुखी हों, सब स्वस्थ हों, सब का कल्याण देखें, किसी को किसी तरह का दुःख न होI
तथा
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् |उदारचरितांतु वसुधैव कुटुम्बकम् |
( महोपनिषद् – ७.७०-७३ )
अर्थात् :- यह अपना है या पराया है , ऐसा आकलन संकुचित चित्त वाले व्यक्तियों का होता है। ( आम तौर पर कुटुम्ब ( कुटुम्बक ) का अर्थ परिवार से लिया जाता है, जिसमें पति-पत्नी एवं संतानें और बुजुर्ग माता-पिता होते हैं । मनुष्य इन्हीं के लिए धन-संपदा अर्जित करता है। कुछ विशेष अवसरों पर वह निकट संबंधियों और मित्रों पर भी धन का एक अंश खर्च कर लेता है। )
किंतु उदात्त वृत्ति वाले तो समाज के सभी सदस्यों के प्रति परोपकार भावना रखते हैं और सामर्थ्य होने पर सभी की मदद करते हैं। यह सुभाषित “वसुधैव कुटुम्बकम्” के भावना की प्रेरणा देता है I
जब तक दूसरे सुखी नहीं होंगे हम सुखी नहीं हो सकते। इसलिए सब सुखी हों, सब स्वस्थ हों, सब का कल्याण हो। अतः जीवन का ध्येय विश्व का कल्याण है। यही सारस्वत सत्य है