न्यायपालिका की साख पर फिर सवाल
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दिल्ली हाईकोर्ट के जज यशवंत वर्मा के घर मिले 15 करोड रुपए से भष्ट्राचार का मुद्दा फिर गरमाया
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15 करोड़ की रकम किसी जज के घर मिलना कोई साधारण बात नहीं है। दिल्ली हाईकोर्ट के जज यशवंत वर्मा के सरकारी बंगले में मिली इस मोटी रकम ने एक बार फिर न्यायपालिका की साख,विश्वसनीयता, निष्पक्षता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक के जजों पर भष्ट्राचार के गंभीर आरोप लगते रहे हैं। लेकिन न्यायपालिका और जजों की गरिमा और सम्मान के चलते अधिकांश मामलों को प्रारंभिक स्तर पर ही या तो नजरअंदाज कर दिया गया या दफना दिया गया। जिस तरह राजनीतिकों और अधिकारियों पर कोई भी भ्रष्टाचार के खुले आरोप लगा देता है,वैसा करने की हिम्मत कोई भी जजों के लिए नहीं करता है। न्यायपालिका का एक अनजाना डर हर किसी के मन में रहता है। लेकिन जब इस तरह के मामले सामने आते हैं,तो न्यायपालिका भी अन्य संस्थाओं की तरह संदेह के घेरे में आती है। जबकि आज भी देश में सबसे ज्यादा सम्मान और विश्वास न्यायपालिका पर ही है।
वर्मा के बंगले पर उनकी गैर मौजूदगी में लगी आग के बाद परिवार की सूचना पर उसे बुझाने पहुंचे फायर ब्रिगेड के कर्मचारियों को एक कमरे में ये भारी मात्रा में नगदी बरामद हुई, तो हड़कंप मच गया। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना के नेतृत्व वाले कॉलेजियम ने उन्हें वापस दिल्ली से इलाहाबाद स्थानांतरित करने का फैसला किया। लेकिन सवाल ये है कि क्या स्थानांतरण से यह मामला शांत करने की कोशिश की जा रही है? क्या एक हाईकोर्ट के जज के सरकारी आवास में इतनी राशि मिलना भ्रष्टाचार की ओर इशारा नहीं कर रहा? क्या इससे लोगों में यह संदेश नहीं जाएगा की इतनी बड़ी रकम क्या किसी फैसले या कई फैसलों को प्रभावित करके तो एकत्र नहीं की गई है ? क्या न्यायपालिका भ्रष्टाचार और अपने जजों की रक्षा करने में लगी है? वर्मा के वापस इलाहाबाद तबादला करने के फैसले का वहां की हाईकोर्ट बार एसोसिएशन ने ये कहकर विरोध किया है कि क्या हम कूड़ादान हैं।
सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के कुछ सदस्यों ने सुझाव दिया है कि जस्टिस वर्मा से इस्तीफा मांगना चाहिए और अगर वह इंकार करते हैं तो उन्हें हटाने के लिए संसद में महाभियोग प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए। फिलहाल उनके खिलाफ जांच शुरू हो गई है। जब यह मामला आज राज्यसभा में उठा तो सभापति जगदीप धनखड़ को भी कहना पड़ा कि अगर यही मामला किसी नेता,अधिकारी या उद्योगपति जुड़ा होता, तो तुरंत कार्रवाई होती। इसलिए न्यायपालिका में भी एक पारदर्शी और प्रभावी सिस्टम की जरूरत है। जबकि सुप्रीम कोर्ट बार काउंसिल के अध्यक्ष कपिल सिब्बल ने कहा कि निश्चित रूप से न्यायपालिका के अंदर भ्रष्टाचार का मुद्दा बहुत गंभीर मुद्दा है। अब समय आ गया है जब सुप्रीम कोर्ट इस पर विचार करें कि जजों की नियुक्ति प्रक्रिया कैसे होनी चाहिए तथा ज्यादा पारदर्शी भी हो।
भारतीय न्यायपालिका में भ्रष्टाचार का इतिहास रहा है। 2008 में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट की जज निर्मलजीत कौर के घर के दरवाजे पर ₹15 लाख का पैकेट बरामद हुआ था। जांच में सामने आया कि ये रकम उनके लिए ही रखी गई थी।लेकिन हुआ क्या? उनका कार्यकाल पूरख हो चुका है और आज तक मुकदमा चल रहा है। इसी तरह गाजियाबाद कोर्ट में हुए करीब सवा छह करोड रुपए के नजारत घोटाले में सीबीआई ने जिन 71 जजों एवं कर्मचारियों के खिलाफ आरोप पत्र पेश किया था। उनमें छह पूर्व शामिल थे। जिन पर धोखाधड़ी, फर्जीवाड़ा, जालसाजी और फर्जी दस्तावेज तैयार करने के आरोप हैं। लेकिन इस मामले की जब चार्जशीट तैयार की गई, तो सीबीआई ने उसमें सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन सिटिंग जज और इलाहाबाद हाईकोर्ट के जजों का नाम निकाल दिया। यह मामला 2010 से विचारधीन चल रहा है। 1990 के दशक में मद्रास हाईकोर्ट के जज अभी रामास्वामी पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे। उनके खिलाफ संसद में हटाने की प्रक्रिया शुरू हुई थी। जबकि 2010 में कोलकाता हाईकोर्ट की जज सुमित्रा सेन को भ्रष्टाचार के आरोप में संसद के माध्यम से हटाया गया था। जो देश का अपनी तरह का पहला मामला था। यानी न्यायपालिका में भ्रष्टाचार नई बात नहीं है। लेकिन या तो इसे दबा दिया जाता है या छ़ोटी मोटी कार्यवाही करके निपटा दिया जाता है। कुछ साल पहले मुंबई हाईकोर्ट के एक जज का मामला सामने आया था,जिसमें उन्होंने एक संपत्ति को खाली करने के लिए अंडरवर्ल्ड को अपराधी को सुपारी दी थी और उसके बदले में उसके एक साथी को जमानत देने का वादा किया था। सबसे बड़ा उदाहरण 2018 में सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों रंजन गोगोई,जस्टिस लोकुर,आर. जस्टिस कुरियन और जस्टिस चलेश्वर कि वह प्रेस कॉन्फ्रेंस है, जिसमें उन्होंने तत्कालीन सीजेआई दीपक मिश्रा पर गंभीर आरोप लगाए थे और कहा था की महत्वपूर्ण मामलों को वै अपने पसंदीदा जजों को सौंपते हैं। निचली अदालतों के जजों पर भी भ्रष्टाचार और फैसलों में पक्षपात पर अंगुलियां उठती रहती है, लेकिन जांच नहीं होती।
न्यायपालिका लोकतंत्र की रीढ़ की हड्डी होती है। यह संविधान की रक्षा करते हुए नागरिकों को न्याय दिलाती है। लेकिन जब उस पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं,तो लोगों का भरोसा टूटने लगता है। 2023 में सीएसडीएस के एक सर्वे में सामने आया था कि केवल 45% भारतीयों को अब न्यायपालिका पर भरोसा है। जबकि 2010 में यह भरोसा 75% था। इस गिरावट का मुख्य कारण भ्रष्टाचार और पारदर्शिता की कमी को माना गया। दरअसल, भारतीय न्यायपालिका में जजों को संविधान के तहत व्यापक शक्तियां तो दी गई है, लेकिन इसके दुरूपयोग से रोकने के लिए कोई प्रभावी तंत्र नहीं है। जजों के खिलाफ शिकायत के लिए भी स्वतंत्र संस्था नहीं है। कॉलेजियम द्वारा जजों की नियुक्ति पर भी सवाल उठाते रहे हैं। कॉलेजियम सिस्टम यानी सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्तियां व स्थानांतरण का फैसला सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों का एक समूह करता है। इसमें कोई राजनीतिक या जनता की भागीदारी नहीं होती। लोकतंत्र के चार स्तंभ कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और मीडिया में से लोगों का भरोसा न्यायपालिका में रह गया है। ऐसे में भी अगर जजों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगता है तो फिर आम आदमी का जीवन और दुश्वार हो जाएगा।
-ओम माथुर की कलम से (फेसबुक)